इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| कुशीनगर समूह के बारे में:- कुशीनगर समूह उत्तरप्रदेश राज्य के गोरखपुर जिला के अन्तर्गत आता है। कुशीनगर समूह 221अधिक शिल्पकारों और 20 एसएचजी सहित सक्षम कार्यबल आधार प्रदान करने में सक्षम है। यह संघटन दिन-प्रतिदिन पहचान प्राप्त कर रहा है। बेंत और बाँस:- राफीया या मूंज (जैसा इन्हें स्थानीय रूप में जाना जाता है) को बाँस और बेंत के साथ भिन्न शैलियों में अनेक प्रकार की टोकरियां, फर्नीचर, तश्तरियां और दीवार सजावटें निर्मित करने में प्रयोग किया जाता है। इलाहाबाद और वाराणसी में अन्य केन्द्रों के साथ बरेली केन्द्र बहुत लोकप्रिय है । उत्तरप्रदेश के दैनिक जीवन में सामान्य रूप में प्रचलित दो प्रमुख सामग्रियां बेंत और बाँस है। गृह उपयोगी उपकरणों से आवासीय गृहों के निर्माण कार्य तक और बुनाई सामग्रियों से संगीत वाद्य तक बाँस से निर्मित किए जाते हैं। इस शिल्प में कोई भी यांत्रिक उपकरण प्रयोग नहीं किया जाता, जो मुख्यत: एक गृह उद्योग है। टोकरी बुनाई के अतिरिक्त बाँस मुख्यत: गृहों और बाड़ निर्माण में प्रयुक्त होता है। यह शिल्प परम्परागत रूप से किसानों को खाली समय में रोजगार प्रदान करता है, यद्यपि अब पूर्णकालिक शिल्पकार वाणिज्यिक गतिविधियों में संलग्न पाए जाते हैं। उत्तरप्रदेश में प्रत्येक स्थान पर बाँस उत्पाद प्रमाण के रुप में उपलब्ध है। इनके उपयोग की भिन्नता के अनुसार बाँस की टोकरियों के विभिन्न प्रकार और आकार होते हैं। सामान्यत: घरेलू व्यक्ति बाँस की टोकरियां बुनते हैं। प्रत्येक जिले में इसकी अपनी विशिष्ट शैली होती है। सामान्य रूप में तरीके से शंकु आकार की टोकरियां लाने-जाने के लिए प्रयोग होती है और चौकोर या गोल तली की संग्रह करने के लिए प्रयोग होती हैं। उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद की बाँस टोकरी एक उदाहरण है। इसमें वर्गाकार तल होता है और जो अंदर की ओर ढकी होती है ताकि चौकोर के कोने आधार के रुप में कार्य करें और इसका मुंह चौड़ा होता है। इसें सुपारी रखने के लिए प्रयोग किया जाता है। बोडो बाँस की टोकरीमोड़ने की सहायता से बनाइ जाती है, जिसका उपयोग ग्रीवा और मुख का आकार बनाने के लिए होता है। ग्रीवा से तली तक भूरे कागज का शंकु बनाया जाता है और टोकरी में रखा जाता है जिससे उसकी नोक तली को स्पर्श करे। शंकु का आकार बनाए रखने के लिए अंदर की और रेत भरी जाती है जिससे और बुनाई शंकु आकार आकार का अनुगमन करे। बेंत और बाँस से गुड़िया और खिलौने भी बनाये जाते हैं। मनुष्यों और पशुओं की आकृतियों के अतिरिक्त खिलौना बंदूक और वाद्य यंत्र बनाये जाते हैं। बाँस से बना छाता का हत्था एक विशेषता है और इसमें पत्तों, विसर्पी जीवों, पौधों, छल्ले और चौकोर विन्यास इस पर उत्कीर्ण होते हैं। बाँस की एक विशेष किस्म जो मूली के रूप में जानी जाती है हत्थों के लिए प्रयोग की जाती है। कच्ची सामग्री:- कच्ची सामग्री मे समृद्ध होने के कारण उत्तरप्रदेश में सुंदर उत्पादों की विस्तृत किस्में हैं। पर्वतीय और मैदानी लोगों, प्रत्येक की अपनी शैली और विन्यास होता है। टोकरियां बनाने के अतिरिक्त बेंत और बाँस को फर्नीचर के रूप में भी परिवर्तित किया जाता है। न्यूनतम उपकरणों के साथ तिनके को तिनके के साथ जोड़ने और पत्तों को एकदूसरे के साथ गूंथकर बेंत और बाँस से निर्मित सामग्रियां मनुष्य की प्राचीनतम रचनाओं में से एक है। धार्मिक उद्देश्यों के लिए इसे शुद्ध समझा जाता था। उत्तरप्रदेश का बेंत कार्य शिल्प दक्षता के उत्कृष्ट नमूनों मे से एक है। समृद्ध जंगलों में कच्ची सामग्री प्रचुरता में उपलब्ध है जो उद्योग को इसका बल और टिकाऊपन प्रदान करती है। प्रक्रिया:- बेंत और बाँस का पूरा तना आरी से काटा जाता है और बिलहुक से विभिन्न आकारों में उर्ध्वाधर काटा जाता है। लचीलेपन के लिए सामान्यत: केरोसीन के दीये पर बाँस को धीमी आँच में तपाया जाता है। वस्तुएं दो भिन्न रुपो मे बनाई जा सकती हैं: टोकरियों के निर्माण के लिए कुंडली और चटाईयों के लिए बुनाई। कुंडलीकृत टोकरी निर्माण में केन्द्रीय भाग के चारों ओर बेंत की कुंडली निर्मित कर टोकरी का आधार पहले बनाया जाता है। इसको सर्पिल आकार में बनाया जाता है वांछित ऊंचाई प्राप्त करने तक क्रमिक रूप से चौड़ाई को बढ़ाया जाता है। कुंडलियों को एकदूसरे के साथ सिलाई की पट्टियों से जोड़ा जाता है जिसे दो प्रकार से जोड़ा जा सकता है: प्रत्येक सिलाई आधार कुंडली के नए भाग के ऊपर से गुजरती है। आठ की आकृति निर्मित होती है अर्थात सिलाई पूर्ववर्ती कुंडली के पीछे, ऊपर और नीचे तथा नई कुंडली के ठीक ऊपर से गुजरती है। इस प्रकार कुंडली सामग्री की पट्टियों से सिलाई की जाती है और टोकरी बनाई जाती है। टोकरी की सजावट झालर, कागज और सिप्पियां लगा कर की जा सकती है। शिल्पकार काटने के उपकरण जिसे दांव कहा जाता है, की सहायता से बाँस को वांछित लम्बाई के आकारों में काटते हैं। बाँस लम्बाईयों को मोटाई के अनुसार विभिन्न प्रकार की छुरियों से चीरा जाता है। इस प्रकार सामग्री किसी वस्तु या फर्नीचर का ढाँचा तैयार करने के लिए तैयार होती है जबकि बारीक बाँस को विन्यास और बांधने के उद्देश्यों से प्रयोग किया जाता है। मोटे बेंत को किसी वस्तु या फर्नीचर का ढाँचा तैयार करने के लिए तैयार होती है जबकि बारीक बाँस को विन्यास और बांधने के उद्देश्यों से प्रयोग किया जाता है। बेंत को दाहक लैम्प की सहायता से गर्म करने की प्रक्रिया द्वारा एक फर्नीचर या वांछित आकार की वस्तु में मोड़ दिया जाता है। सिरों को चिपकाव पदार्थ और कीलों की सहायता से संयोजित किया जाता है और जोडों को बारीक बेंत की पट्टियों से बांधा जाता है। बाँस और बेंत से निर्मित वस्तुओं को रेगमार से साफ किया जाता है और वार्निश से पॉलिश किया जाता है। बेंत और बाँस वस्तुओं के उत्पादन में सम्पूर्ण तने को आरे से काटना और बिलहुक या दांव का प्रयोग कर उन्हें विभिन्न आकारों में फाड़कर चीरना सम्मिलित है। चिराई सघन रूप से संघटित रेशों की लम्बाई के साथ ऊर्ध्वाधर की जाती है और यह अपेक्षकृत हल्का कार्य है जिसमें नाल में अपेक्षित मात्रा में नमी की विद्यमानता की आवश्यकता होती है। बाँस को आकार में मोड़ने से पूर्व गर्म करने के लिए केरोसिन लैम्प का प्रयोग किया जाता है। तकनीकियाँ:- बेंत उत्पादों को तैयार करने में वनों से कच्चा माल एकत्रित करने से आरंभ कर अनेक चरण होते हैं। एक कोमल सतह प्राप्ति के लिए कच्चे बेंत की ऊपरी परत को छील दिया जाता है। लम्बी बेंत छड़ों को छोटे टुकड़ों में काटा जाता है जिसके बाद पतली पट्टियां प्राप्त करने के लिए बेंत को चीरा जाता है। इसे अपेक्षित पतला तैयार करने के लिए बेंत को और भी चीरा जा सकता है। चीरे हुए बेंत को एक ज्वलन लैम्प का प्रयेग कर अब मोड़ दिया जाता है, जिसके कारण सतह पर ज्वलन निशान हो जाते हैं, इन्हें रेगमार का प्रयोग कर हटा दिया जाता है। इसके बाद बेंत को वस्तुओं के विन्यास के आधार पर, जिनसे इस शैली को विकसित किया गया है, बुना जा सकता है। अंतिम रूप दिण्ए जाने के पश्चात् उत्पाद को बाजार में भेजने से पूर्व वार्निश की परत से आवृत किया जाता है। कैसे पहुंचे:- हवाइ मार्ग से:- वायु सेना स्टेशन रेलवे स्टेशन से ८ किमी दूर है. हाल ही में ८ मार्च को २००३ को इसका व्यावसायिक हवाई अड्डे के रूप में उद्घाटन किया गया है. गोरखपुर से लखनऊ दिल्ली और कोलकाता के लिए दैनिक उड़ानें उपलब्ध हैं. सडक के द्रारा:- यहाँ सड़कों का एक अच्छा नेटवर्क है जो राज्य के प्रमुख भागों को जोड़ता है. गोरखपुर से संसौली, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली आदि के लिए लगातार बसें उपलब्ध हैं. रेल के द्रारा:- यहाँ सड़कों का एक अच्छा नेटवर्क है जो राज्य के प्रमुख भागों को जोड़ता है. गोरखपुर से संसौली, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली आदि के लिए लगातार बसें उपलब्ध हैं.