इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| बलिया समूह के बारे में:- बलिया समूह उतरप्रदेश राज्य के गाजीपुर जिले में पडता है। बलिया समूह 200 से ज्यादा कारीगरो और 10 SHG बना पाये है जो मजबुत कार्यबल देता है। यह संघठन का संवेग दिन-प्रतिदिन बढ रहा है। घास, पत्ता, सरकंडे, तथा रेशा:- रफीया या मूंज (जैसा इन्हें स्थानीय रूप में जाना जाता है) को बाँस और बेंत के साथ भिन्न शैलियों में अनेक प्रकार की टोकरियां, फर्नीचर, तश्तरियां और दीवार सजावटें निर्मित करने में प्रयोग किया जाता है। इलाहाबाद और वाराणसी में अन्य केन्द्रों के साथ बरेली केन्द्र बहुत लोकप्रिय है। घास या रेशा, मूंज,खेत की किनारों पर बाड़ के रूप में उगाए जाते हैं। यह परम्परागत शिल्प है परिवार के सदस्य इस शिल्प को बहुत छोटी आयु में सीखना आरम्भ कर देते हैं। एक बार जब पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है तो इसे भूमि के अति निकट से काटा जाता है तथा भूमि पर एक या दो दिनों के लिए छोड़ दिया जाता है जिससे पत्ते झड़ जाते हैं. रेशा अलग करने के लिए पौधे को जल सोखने के लिए डुबोया जाता है. यह प्रक्रिया सड़ाने के रूप में जानी जाती है. इस प्रकार पृथक किए गए जूट को सुखाया जाता है और विभिन्न आकार प्रदान किए जाते हैं. रेशों की धागों में बंटाई की जाती है. कभी-कभार धागों की वस्त्र एवं कालीन बनाने के लिए बुनाई की जाती है. साफ रेशों, धागों, तथा अवशेषों सभी का प्रयोग शिल्प उत्पाद जैसे थैले, गलीचे, कालीन, लटकन, जूते, कोस्टर, आभूषण, सजावटी वस्तुएं आदि निर्मित करने के लिए किया जाता है. कुछ अति उच्च गुणवत्ता के जूट का प्रयोग सज्जा सामग्री तथा परिधान बनाने में भी किया जाता है. खजूर के कोमल पत्तों जिनकी शिराएं निकाल ली जाती हैं और तब धूप में सुखाया जाता है, से निर्मित वस्तुओं में थैले, भोजन पात्र और हाथ में रखे जाने वाले सजावटी पंखे जिनमें 37 से 56 के मध्य तिल्लीयां होती हैं, सम्मिलित हैं। तिल्लीयों को उनके मध्य में छेद के माध्यम से ताँबे की तार द्वारा एकसाथ बाँधा जाता है और पंखे के रूप में फैलाने के लिए एकसाथ सिल दिया जाता है। तिल्लीयों पर पुष्प चित्रकारी कर पंखों को आकर्षक बनाया जाता है। ताड़ पत्तों और तने की बुनाई दक्षिणी केरल में एक फलता-फूलता उद्योग है इन दिनों थैले, टोप,और सूटकेश भारतीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए बनाए जा रहे हैं। सरकंडा एक खोखले तने सहित एक कठोर तने की घास होता है जो बाँस के समान दिखाई देता है। यह एक मजबूत सामग्री है और सरकंडे की चटाई को भवनों की दीवारों और छतों को बनाने में प्रयोग किया जाता है। सरकंडे को चटाई के रूप में टुईल बनने के लिए पहले चीरा और छीला जाता है। इन्हें एक सिरे से तैयार करना आरंभ किया जाता है और चुनटें या बुनाई तिरछे रूप में की जाती है। लंबी पट्टियों को मध्य से मोड़ दिया जाता है और दूसरी पट्टी को टेढ़ा प्रविष्ट किया जाता है, जिसे बदले में मोड़ दिया जाता है, और अगली पट्टी दोबारा टेढ़ी प्रविष्ट की जाती है और यह जारी रहता है। टेढ़ी पट्टियों की चुनट चटाई का किनारा निर्मित करती है। सरकंडों को अत्यधिक मजबूत टोकरियां बनाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। जूट की कच्ची सामग्री:- उत्तर प्रदेश के गाँव ताड़, नारियल, खजूर, तथा पनईताड़ वृक्षों से समृद्ध हैं. टोकरियां तथा अन्य संबंधित सामग्री तैयार करने के लिए कच्ची सामग्री के स्रोत के रूप में ताड़ प्रमुख स्रोत है. अन्य कच्ची सामग्री जैसे बॉंस, बेंत, घास, रेशे तथा सरकंडों का प्रयोग भी टोकरियां, छप्पर, चटाईयां तथा अन्य अनेक वस्तुएं बनाने में किया जाता है. जूट की प्रक्रिया:- जूट रेशा जूट पौधे के तने एवं फीते (बाहरी त्वचा) से प्राप्त होता है. रेशे को पहले सड़ाने के द्वारा प्राप्त किया जाता है. सड़ाने की प्रक्रिया में जूट तनों को इक्ट्ठे बंडलों में बांधना तथा उन्हें बहते हुए पानी में नीचे डुबोना सम्मिलित है. सड़ाने के दो प्रकार हैं: तना एवं फीता. सड़ाने की प्रक्रिया के पश्चात् उधेड़ने की प्रक्रिया आरंभ होती है. प्राय: महिलाएं एवं बच्चे यह कार्य करते हैं. उधेड़ने की प्रक्रिया में रेशा रहित सामग्री हटा दी जाती है, तब श्रमिक जूट तनों से झटके द्वारा खींचकर रेशा अलग करते हैं. जूट थैलों का प्रयोग फैशन बैग तथा प्रचार थैलों के लिए किया जाता है. जूट की पर्यावरण अनुकूल प्रकृति इसे आदर्श व्यवसायिक उपहार बनाती है. जूट के फर्श बिछावन में बुने हुए तथा गुच्छेयुक्त एवं ढेरनुमा कालीन सम्मिलित होते हैं. 5/6 मीटी चौड़ाई तथा विस्तृत लंबाई के जूट के गलीचे एवं कालीन, फैंसी तथा ठोस रंगत में तथा विभिन्न बुनावट जैसे बक्कल, पनामा, हेरिंगटन आदि में देश के दक्षिणी भागों में सुगमता से बनाए जाते हैं. भारत के केरल में जूट चटाईयां तथा कालीन हैण्डलूम तथा पावरलूम दोनों के द्वारा अत्यधिक मात्रा में बनाए जाते हैं. पारंपरिक सतरंजी चटाई गृह-सज्जा में अति प्रसिद्ध हो रही है. गैर बुने हुए तथा मिश्रीत जूट का प्रयोग गद्दे, लिनोलियम आधार एवं अनेक वस्तुएं निर्मित करने में किया जा सकता है. इस प्रकार जूट इसके बीज से लेकर विनष्ट रेशे तक अत्यधिक पर्यावरण अनुकूल है, क्योंकि विनष्ट रेशा एकाधिक बार पुर्नचक्रित किया जा सकता है. जूट की तकनीकीया :- व्यवहारिक कार्य श्रमिक को तकनीक के आधुनिकीकरण से परिचित कराना तथा दक्षता को उन्नत करना एवं उसकी उत्पादन क्षमता एवं आय में वृद्धि करना है ताकि उसे अपने जीवन की मौलिक आवश्यकताएं पूरा करने तथा तर्कसंगत समय में गरीबी के पंजों से मुक्त होने में सक्षम बनाया जाए. कैसे पहुचे :- गाजीपुर जिला पवित्र शहर वाराणसी के पास है, वह अपनी बहादुरी और आध्यात्मिक की महिमा के लिए जाना जाता है. यह अच्छी तरह से रेलवे और सड़क मार्ग से भारत के प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है और यह नवनिर्मित बौद्ध परिपथ के सारनाथ से कुशीनगर में राष्ट्रीय राजमार्ग -29, जो बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए एक मुख्य आकर्षण है, मुख्य भगवान बुद्ध के उपदेश और प्रवचन का केंद्र के रूप में है. इस जगह वाराणसी से लगभग 75 किलोमीटर दूर है. निकटतम हवाई अड्डा वाराणसी में बाबतपुर, जो सिर्फ 70 किलोमीटर दूर यहाँ है, जहां सभी प्रमुख शहरों के लिए और काठमांडू के लिए दैनिक उड़ानें, नेपाल उपलब्ध है से दूर है. वाराणसी, इलाहाबाद, लखनऊ और गोरखपुर से बस रूट बार नियमित अंतराल पर उपलब्ध है.