उत्तर प्रदेश     गौतमबुद्ध नगर     ग्रेटर नोएडा


इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं|

ग्रेटर नोएडा समूह के बारे में:-

ग्रेटर नोएडा समूह उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत गौतम बुद्ध नगर जिले में आता है.

ग्रेटर नोएडा समूह में मजबूत कार्य बल के रूप में १०३ से अधिक कारीगरों एवं १० स्वयं सहायता समूह तैयार करने की क्षमता है. आवागमन के कारण दिन-ब-दिन कार्य-बल में वृद्धि होती जा रही है.

गालीचे और दरीयां:-

बंगाल के बुने कालीन मुख्य रूप से भूटिया समुदाय की महिलाओं द्वारा बुने जाते हैं. इन कालीनों के डिजाइन आमतौर पर पड़ोसी तिब्बत से लिए जाते हैं और इसमें ऊन का प्रयोग किया जाताहै. इन कालीनों के रूपांकन तिब्बती शास्त्र और उनके प्राचीन इतिहास से प्रेरित हैं. सुंदर कालीन कमर-करघे से बनते हैं. तिब्बती शरणार्थी स्वयं सहायता केंद्र, जनजातीय कल्याण केन्द्र की तुलना में, जो बड़े करघों पर साधारण कालीन, बढ़िया कालीन बनाते हैं.इन कालीनों में आम तौर पर मजबूत रंगों के साथ बोल्ड डिजाइन होते हैं.

प्रसिद्ध कालीनों के कुछ रूपांकन अजगर, पक्षी, कमल, तोता फूल, और चमगादड़ हैं. कुछ कालीनों में स्वास्तिक और चीन की दीवार भी पा सकते हैं. कभी कभी रूपांकनों पर निर्भर कालीनों के विशिष्ट नाम भी होते हैं. पड़ोसी देश भूटान, नेपाल और लेप्चास में भी तिब्बती कालीन कारीगर के मौजूद हैं.

कालीन बुनाई के लिए उच्च श्रेणी के कौशल और निपुणता की जरुरत होती है और यह काम आम तौर पर पश्चिमी कामेंग में मोनपा महिलाओं और उत्तर सियांग जिले की जनजातियों द्वारा किया जाता है. चमकदार रंगों में बुने इन कालीनों में मुख्य रूप से इस क्षेत्र में तिब्बती बौद्ध प्रभाव को दर्शाते हुए तिब्बती रूपांकन किये जाते हैं जिनमें अजगर या ज्यामितीय और पुष्प डिजाइन होते हैं. ऊन का रंग मूल सब्जी और अन्य प्राकृतिक डाई स्रोतों से प्राप्त किया हुआ ही होता है हालाँकि कृत्रिमरंजकों और रसायनों का प्रयोग भी अब आम है.

कच्चीसामग्री:-

कालीन ढेर सारे रंगे हुए धागों के ढेर से बनता है, प्राथमिक बैकिंग जिसमे धागे सिले होते हैं, द्वितीयक बैकिंग जो कालीन को मजबूती देता है, सरेस जो प्राथमिक और द्वितियक बैकिंग को बांधता है, और ज्यादातर मामलों में कालीन के नीचे एक गद्दी लगाया जाती है जो अधिक नरम और अधिक आरामदायक अनुभव देती है.

दोनों प्राथमिक और द्वितीयक बैकिंग ज्यादातर बुना हुआ या बिना बुना हुआ पोलिप्रोपीलिन (एक मजबूत किस्म का प्लास्टिक) होती हैं फिर भी कुछ द्वितीयक बैकिंग अगर बुनते समय गांठ जैसी नजर आये तो वो प्राकृतिक फाइबर जूट से बनी हो सकती हैं.बैकिंग्स को बांधने के लिए प्रयोग किया गया गोंद सार्वभौमिक सिंथेटिक लेटेक्स (रबर वनस्पतिक दूध) है. सबसे आम पैडिंग रिबौंड (युरेथीन का बांध) है, हालांकि सिंथेटिक लेटेक्स के विभिन्न रूपों जैसे पोलियुरेथीन या विनाईलका काप्रयोग भी किया जा सकता है. रिबाउंड युरेथीन का पुनर्चक्रित अवशेष है जिसे सामान आकार के टुकड़ों में काटकर परतों में दबाया जाता है.स्क्रैप urethane कि समान आकार के टुकड़ों में कटा हुआ है और परतों में दबा पुनर्नवीनीकरण है. हालांकि कुछ दुर्लभ कालीन की गद्दियाँ घोड़े के बाल या जूट से बनाई जाती हैं. प्लास्टिक की उपरी परत कालीन की चिकनी सतह को सुनिश्चित करने के लिए आमतौर पर जोड़ी जाती है.

प्रक्रिया:-

सूती और ऊनी कालीन शाहजहांपुर और आगरा में बनाये जाते हैं जहाँ के बुनकर बाजार की मांग के अनुसार पारंपरिक और नए डिजाइन का उत्पादन करते हैं.


कालीन और चटाइयों की बुनाई के लिए उच्च श्रेणी के कौशल और निपुणता की जरुरत होती है और यह काम आम तौर पर पश्चिमी कामेंग में मोनपा महिलाओं और उत्तर सियांग जिले की जनजातियों द्वारा किया जाता है. चमकदार रंगों में बुने इन कालीनों में मुख्य रूप से इस क्षेत्र में तिब्बती बौद्ध प्रभाव को दर्शाते हुए तिब्बती रूपांकन किये जाते हैं जिनमें अजगर या ज्यामितीय और पुष्प डिजाइन होते हैं. ऊन का रंग मूल सब्जी और अन्य प्राकृतिक डाई स्रोतों से प्राप्त किया हुआ ही होता है हालाँकि कृत्रिमरंजकों और रसायनों का प्रयोग भी अब आम है.

तकनीकियाँ:-

रेसो के पट्टो के बिखरे समूहो को स्टेपल कहते है जिनका इस्तेमाल शुरुआतमें कार्पेट बनाने के लिए होता था ।स्टेपल्स को होपर में रखा जाता है जहा पे उनको गरम किया जाता है,लुब्रीकेट किया जाता है और उनके छिपट बनाये जाते है,जिनको रेसो के लंबे पिल्ले पे बीटा जाता है।वहां से कार्पेट बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है।

कैसे पहुँचें: -

वायुमार्ग द्वारा:-

इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (नई दिल्ली) नोएडा से ३५ किमी की दूरी परहै.

सडक के द्रारा:-

नोएडा उत्तर प्रदेश और उसके पड़ोसी राज्यों से सड़कों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है.

रेल के द्रारा:-

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन नोएडा से १५ किलोमीटर है.








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