इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| साई समूह के बारे में:-
साई समूह उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत फ़र्रुख़ाबाद जिला में आता है.
साई समूह में मजबूत कार्य बल के रूप में ५०० से अधिक कारीगरों एवं ३० स्वयं सहायता समूह तैयार करने की क्षमता है. आवागमन के कारण दिन-ब-दिन कार्य-बल में वृद्धि होती जा रही है हस्त कशीदाकारी:- उत्तरप्रदेश में लखनऊ चिकन कशीदाकारी का केन्द्र था और है, इसकी शाश्वत भव्यता और इसकी बारीक नजाकता सहित एक कौशल जो 200 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है- शोषित, वाण्जियीकृत हुई परंतु समाप्त नहीं हुई। वास्तव में यह शिल्प जीवित है और इसकी प्राचीन भव्यता और सुंदरता में से कुछ प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है। चिकन कशीदाकारी अच्छे सूती कपड़े पर की जाती है। वस्त्रों की पहले सिलाई की जाती है और बाद में कशीदाकारी, जबकि स्कर्ट, साडि़यां और मेजपोश की पहले कशीदाकारी की जाती है और बाद में अंतिम रूप प्रदान किया जाता है। चिकन की उत्त्पति का एक अध्ययन स्पष्ट करता है कि कशीदाकारी का यह रूप मुगल बादशाह जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ के साथ ईरान से भारत आया। चिकन शब्द ईरानी शब्द 'चिकान' से लिया गया है जिसका अर्थ सजावट है। परंतु कुछ व्यक्ति इस तथ्य पर बल देते हैं कि यह शिल्प बंगाल से प्रवासित है। हम जानते हैं कि चिकनकारी अवध में उस समय अस्तित्व में आई जब बंगाल में मुगल सत्ता का पराभव हो गया और कलाकार आश्रय और रोजगार की इच्छा से अवध दरबार में आ गए। चिकन कशीदाकारी में लगभग 40 टांकों का रंगपटल है जिसमें से लगभग 30 अभी भी प्रयोग किए जा रहे हैं। इन्हें वृहत रूप से तीन शीर्षों के अन्तर्गत विभाजित किया जा सकता है- समतल टाँके, उभरे हुए आौर उत्कीर्ण टाँके, तथा खुले जाफरीनुमा जाली कार्य। इनमें से कुछ के समकक्ष अन्य कशीदाकारियों में हैं, शेष हस्तकौशल हैं जो इन्हें विशिष्ट और अनूठा बनाता है। ये देश में लगभग सभी कशीदाकारी टाँकों को समाहित करते हैं और रोचक तथा वर्णनात्मक नाम लिए हुए हैं। उनके परम्परागत नामों सहित प्रमुख समतल टाँके हैं: टैपची : वस्त्र के दाईं और चलते हुए टाँका कार्य। कभी-कभार यह किसी चित्र में पंखुडि़यों और पत्तियां जिसे घास पत्तियां कहा जाता है भरने के लिए समानान्तर पंक्तियों के मध्य किया जाता है। कई बार टैपची का प्रयोग सम्पूर्ण वस्त्र पर बेल-बूटी बनाने के लिए किया जाता है। यह सबसे साधारण चिकन टाँका है और प्राय: अन्य सजावट के लिए आधार का कार्य करता है। यह जामदानी के समान प्रतीत होता है और सबसे सस्ता और शीघ्रतम टाँका समझा जाता है। पेचनी: टैपची को कई बार अन्य किस्मों पर कार्य करने के लिए आधार के रूप प्रयोग किया जाता है और पेचनी उनमे से एक है। यहाँ टैपची को एक झूलती शाखा का प्रभाव प्रदान करने के लिए इसके ऊपर धागे को गूंथकर ढक दिया जाता है और इसे सदैव कपड़े की दाएं ओर किया जाता है। पश्नी : चित्र की रूपरेखा तैयार करने के लिए टैपची पर कार्य किया जाता है तब सूक्ष्म लम्बवत साटिन टाँकों से भराव किया जाता है और सुन्दर कार्य के लिए बदला के अन्दर लगभग दो धागों का प्रयोग किया जाता है। बखिया : यह सबसे साधारण टाँका है और प्राय: छाया कार्य के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। यह दो प्रकार का होता है: (अ) उल्टा बखिया : प्रवाह विन्यास के नीचे वस्त्र के दूसरी ओर स्थित होता है। पारदर्शी मसलीन अपारदर्शी हो जाती है और प्रकाश तथा छाया का सुन्दर प्रभाव उत्पन्न करती है। (आ) सीधी बखिया : अलग-अलग धगों से आर-पार साटिन सिलाई। धागे का प्रवाह वस्त्र की सतह पर स्थित होता है। यह रूपों की भराई में प्रयोग होता है और काई भी प्रकाश या छाया प्रभाव नहीं होता है। खटाऊ, खटवा या कटवा एक कटाई कार्य या गोट्टा-पट्टा है- एक टाँके से अधिक यह एक तकनीक है। गिट्टी : काज और लम्बी साटिन टॉंकों का संयोजन एक चक्र के समान विन्यास तैयार करने के लिए प्रयोग किया जाता है। जंजीरा : जंजीर टाँके प्राय: पेचनी या मोटी टैपची के संयोजन सहित एक बाहरी रेखा के रूप में प्रयोग किया जाता है। मोटा या पेंचदार टाँकों में निम्नलिखित सम्मिलित हैं : मुर्री : एक अति सूक्ष्म साटिन टाँका जिसमें पहले रेखित टैपची टाँकों के ऊपर एक गाँठ निर्मित की जाती है। फंदा : यह मुर्री का ठोटा संक्षिप्त रूप है। गांठें गोलाकार और बहुत छोटी होती हैं और मुर्री की भांति नाशपाती के आकार की नहीं होती। यह एक जटिल टॉंका है और इसके लिए अति उत्तम कौशल की आवश्यकता होती है। जालियां : जाली या जाफरियां जो चिकनकारी में तैयार की जाती हैं इस शिल्प की विशिष्ट विशेषता है। छिद्र धागे की कटाई या खिंचाई किए बगैर सूई के हस्तकौशल से निर्मित किए जाते हैं। वस्त्र के धागों को स्पष्ट नियमित छिद्र या जालियां तैयार करने के लिए चौड़ा किया जाता है। इसे अन्य केन्द्रों पर जहाँ जालियां तैयार की जाती हैं धागे को खींचकर बाहर निकाला जाता है। चिकनकारी में यह स्थिति नहीं हैं। जाली तकनीकों के नाम उनके उत्पति स्थानों के नाम- मद्रासी जाली, बंगाली जाली- या संभवत: जाली विशेष के लिए मांग स्थल का संकेत करते हैं। मूल रूप जिसमें जालियां तैयार की जाती हैं ताने और बाने को एक शैली में एक ओर धकेला जाता है। छिद्रों और टाँकों की आकृतियां एक जाली से दूसरी जाली में भिन्न होती हैं। कच्ची सामग्री:- कपड़े को सुरक्षित करने के लिए जिसपर स्टेंसिल के साथ एक विन्यास बनाया जाता है, विभिन्न आकारों, समान्यत: लगभग 1.5 फुट ऊंचे फ्रेम प्रयोग किए जाते हैं। एक हाथ कपडे़ के नीचे धगे को सूई के लिए सुरक्षित करता है जबकि दूसरा हाथ सूई को सुगमता से वस्त्र के ऊपर ले जाता है। प्रक्रिया:- चिकन वस्त्र के उत्पादन की प्रक्रिया, मान लीजिए यह एक कुर्ता है, विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरती है। प्रत्येक प्रक्रिया में एक अलग व्यक्ति सम्मिलित होता है। अंतिम उत्तरदायित्व यद्यपि निर्माता को आदेश करने वाले व्यक्ति का होता है, सामान्यत वह भी विक्रेता होता है। चिकन कार्य में अनेक व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। वस्त्र को दरजी द्वारा वांछित परिधान के आकार में काटा जाता है, जिसके बाद कशीदाकारी-पूर्व मौलिक सिलाई की जाती है ताकि ब्लॉक छपाईकर्ता को विन्यास स्थापना के लिए सही आकार उपलब्ध करवाया जा सके। विन्यास को अर्द्धसिलाई किए गए वस्त्र पर कच्चे रंगों से छपाई की जाती है, और तब वस्त्र की कशीदाकारी प्रारंभ होती है। पूर्ण होने के पश्चात् आरेख की ध्यानपूर्वक जाँच की जाती है और अधिकतर विकृतियां प्रथम दृष्टि में पहचानी जाती हैं। परंतु सूक्ष्म दोष केवल धुलाई के बाद ही सतह पर आते हैं। धुलाई एक भट्टी में की जाती है, जिसके बाद वस्त्र तान दिया जाता है और इस्त्री की जाती है। इस पूरे चक्र में एक से छ: माह का समय लगता है। वास्तव में, चिकन कशीदकारी सफेद धागे के साथ, सफेद सूती वस्त्र जैसे मसलीन या कैम्ब्रीक पर की जाती थी। वर्तमान में चिकन कार्य न केवल रंगीन धागों के साथ किया जाता है बल्कि सभी प्रकार के वस्त्रों जैसे सिल्क, क्रेप, सिफॉन और टस्सर पर किया जाता है। तकनीकियाँ:- टाँके लगाने की एक विद्या और पद्धति है। रफू टाँके को खुरदरे सूती वस्त्र पर कोणीय विन्यास को भरने और वस्त्र की सतह आच्छादित करने के लिए प्रयोग किया जाता है, जबकि साटिन टाँके विशेषकर नाजुक वस्त्रों जैसे सिल्क, मसलीन या लिनन पर लगाए जाते हैं। चिकन में कुछ टाँके वस्त्र के विपरीत दिशा में लगाए जाते हैं, जबकी अन्य सीधी दिशा में लगाए जाते हैं। परंतु यह इसकी विशिष्टता में अनूठा है कि एक उद्देश्य विशेष के लिए जितने टाँके निर्धारित किए जाते हैं, उसमें उतने ही प्रयोग किया जाता हैं- इन्हें अन्य टाँकों से प्रतिस्थापित नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए चैन सिलाई (जंजीरा) का प्रयोग पत्ते, पंखुड़ी या तना की अंतिम बाह्यरेखा के लिए प्रयोग किया जाता है। टाँकों के विभिन्न प्रकारों के लिए भिन्न विशिष्टताएं प्रयोग की जाती हैं। उदाहरण के लिए खुला कार्य या जाली उन कशीदाकार्य करने वालों द्वारा नहीं की जाती जो भराई कार्य करते हैं- प्रत्येक श्रमिक अपना कार्य करता है और तब वस्त्र को आगामी कशीदाकारी करने वाले के पास भेज दिया जाता है। प्रत्येक कार्य के लिए मजदूरी पृथक रूप से निश्चित है। कैसे पहुचे :- वायुमार्ग द्वारा:- लखनऊ भारत के प्रमुख शहर और नगरो से वायु मार्ग से अच्छी तरह जुडा हुआ है।लखनऊ हवाइ अड्डा अमौसी मं है,शहर के मध्य से करीबन 15 किमी की दूरी पर है। सडक के द्रारा:- लखनऊ उतरप्रदेश के प्रमुख नगरो और आसपास के विस्तारो से सडक और सडक परिवहन के तंत्र के द्रारा अच्छी तरह से जुडा हुआ है। रेलमार्ग द्वारा:- लखनऊ मे दो मुख्य रेल्वे जंक्शन है चारबाग और लखनऊ । इसके पास अच्छा रेल्वे तंत्र है जो देश के महत्व के सभी रेल जंक्शनो से हो के गुजरता है।