इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर/शहर/कुछ सटे गांव और उनसे लगे क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें सामान्य अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है| हस्तशिल्प/हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (जो अधिकांशतः गांवों/कस्बों में पाया जाता है) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं| किसी क्लस्टर विशेष में, ऐसे उत्पादक प्रायः किसी खास समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो पीढियों से इन उत्पादों को तैयार करने के कार्य में लगे होते हैं| दरअसल, कई आर्टिशन क्लस्टर (शिल्पी जमघट) सदियों पुराने हैं| उज्जैन समूह के बारे में:-उज्जैन समूह मध्य प्रदेश राज्य में भोपाल जिला के अर्न्तगत आता है. उज्जैन समूह समूह 225 से अधिक कलाकारों तथा 18 एसएचजी आकार सहित सशक्त कार्यबल आधार प्रदान करने में सक्षम है. यह संघटन दिन प्रति दिन पहचान प्राप्त कर रहा है.मेटल वेअर (धातु के बर्तन/गहने): उत्तराखंड दुनिया का सबसे बड़ा पीतल एवं तांबा उत्पादक क्षेत्र है| एक या एक से अधिक धातुओं से बनी वस्तुओं के हजारों प्रतिष्ठान पूरे प्रदेश भर में फैले हुए हैं| इन वस्तुओं को तैयार करने के लिए तांबे या पीतल के चादर पर सबसे पहले दो कम्पासों की मदद से निशान बनाया जाता है और कैंची, जिसे कटारी कहा जाता है, की सहायता से इसे एक या एक से अधिक टुकड़ों में काट लिया जाता है| फिर इसे बारी-बारी से गर्म कर और पीटकर आवश्यक आकार दिया जाता है और अंत में इसे लेथ मशीन पर ले जाते हैं, जहां इसे अंतिम रूप देते हैं|धातु से बने गहने हर दौर में प्रशंसनीय रहे हैं| धातुओं की रंग और बनावट के आकर्षक वैषम्य ने इनले, ओवरले, एप्लिक, रंगों की फिक्सिंग जैसी तकनीकों के जरिए धात्वीय श्रृंगार के विकास में मुख्य भूमिका निभाई है|भारत की देशी रियासतों में न केवल सोना और चांदी से बनी उभरी आकृति और मीनाकारी किए हुए आभूषणों की मांग रहती थी बल्कि मीनाकारी वाले बर्तनों जैसे- वाइन कप, फिंगर-बाउल, पिल बॉक्स आदि की भी मांग थी| कभी-कभी रत्नजड़ितबर्तनों या आभूषणों की भी मांग होती थी| भारतीय शिल्पी इस कला में माहिर हैं| नए-नए उपकरण, तकनीक और कौशल के विकास के साथ, आज वे पहले से बेहतर तरीकों से लैस हैं ताकि आधुनिक आवश्यकताओं को पूरी कर सकें| आधुनिक बाजार मांगों को पूरा करने के लिए, आज-कल सोने और चांदी की परत चढ़ाकर जिन वस्तुओं को तैयार किया जाता है, वे सामान्य तौर पर देखने में साधारण होती है या यदि उन्हें अलंकृत भी किया जाता है तो वे श्रृंगाराधिक्य से मुक्त रहती हैं| चांदी से बनी वस्तुओं के कुछ हिस्से कभी-कभी पानी से ढंके होते हैं|कच्ची सामग्री:-भारत में, प्राचीन काल से ही पीतल और तांबे का प्रयोग विभिन्न उपयोगी वस्तुओं को बनाने में किया जाता है| यहां धातु से वस्तुएं बनाने की समृद्ध परंपरा है, जिनका उपयोग धार्मिक और गैर-धार्मिक दोनों ही उद्देश्यों के लिए किया जाता है| ऐसी वस्तुओं के किस्मों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिनमें स्टैंडिंग लैंप, आरती (आनुष्ठानिक दीये), दीप-लक्ष्मी, हैंड लैंप और चेन लैंप शामिल हैं| वृतीय, षट्भुजीय, अष्टभुजीय और अंडाकार छिछली थालियां व्यापक रूप से प्रयोग में लाई जाती हैं और ये कांसे या शीट ब्रास (पीतल के पत्तर) से बनी होती हैं| लोकप्रिय थंजावुर प्लेटों पर देवी-देवताओं, पक्षियों, फूलों और ज्यामितिक आकृतियां बनी होती हैं, जिन्हें तांबे या चांदी के पत्तर को पीछे से पीटकर और फिर, उन्हें ब्रास ट्रे, कुडम या पंचपात्र का स्वरुप प्रदान कर तैयार किया जाता है| धातु से बने खिलौने भी काफी लोकप्रिय हैं और वे प्रदेश के विभिन्न शहरों और नगरों के अनेक गिफ्ट आउटलेटों पर बिकते हैं| प्रक्रिया:-ये शिल्पी अपने सामानों को तैयार करने के लिए बलुई मिट्टी, रेजिन और तेल को निश्चित अनुपात (२०:२:१) में मिलाकर सबसे पहले उसे सांचे में ढालते हैं, और मिट्टी की सतह पर बोरेक्स (सुहागा) लगाते हैं ताकि धातु चिपक न पाए| क्षार के रूप में प्रयुक्त, मिश्रधातु -गहरे रंग के जस्ते- जिसमें जस्ते और तांबे का अनुपात ९-१६:१ का होता है, को पिघलाया जाता है और उसे सांचे में डाल दिया जाता है, जब तक कि वह जमकर ठोस रूप न ले ले| वस्तु की खुरदरी धातु सतह को रेगमार कागज से घिसाई करके कोमल बनाया जाता है उसके और तब विन्यास का अनुरेखण और नक्काशीकार्य करने के लिए अनुरुप आधार प्रदान करने हेतु गहरी सतह लाने के लिए कापर सल्फेट के विलयन से साफ किया जाता है।विन्यास उत्कीर्ण करने के लिए छत्ते से मोम और चिपकाव पदार्थ राळ का प्रयोग किया जाता है। इस घोल को समतल पत्थर पर फैला दिया जाता है और वस्तु जिस पर नक्काशीकार्य करना है उसे इस पर स्थापित किया जाता है। विन्यास का छैनी की मदद से हाथ द्वारा अनुरेखण किया जाता है, और 95% की शुद्धता सहित शुद्ध चांदी के तार को खाँचों में विन्यास बनाने के लिए जड़ा जाता है। उत्कीर्ण कार्य के लिए पाँच भिन्न प्रकार के उपकरण प्रयोग किये जाते हैं।अंतिम रोचक चरण में, वस्तुओं को हल्का गरम किया जाता है और सल्मोनिक और पुराने किले के भवनों से प्राप्त मिट्टी के घोल से उपचारित किया जाता है, जो सम्पूर्ण सतह को गहरा काला प्रभाव प्रदान करती है जो जड़ाई की गई चमकदार चांदी की तुलना में एक विशिष्ट अन्तर प्रस्तुत करती है।यही एक अन्तर है जिसने बिद्री को एक विशिष्टता प्रदान की है जो संभवत: अन्य किसी धातु बर्तन में नहीं होने का दावा किया जा सकता। अंत में काले मेट आवरण को और गहरा करने के लिए तेल के साथ घिसाया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया हाथें से की जाती है, इस प्रकार बहुत समय लगता है।तकनीकें :- धातुकर्म तकनीकें इसी सिद्धांत का अनुगमन करती हैं, चाहे विन्यास का पैमाना औद्यो़गिक है या मूर्तिकला से संबंधित, अथवा छोटी सी अँगुठी या कानों की बाली के सूक्ष्म स्तर पर है. इसके अतिरिक्त, अनेक मौलिक तकनीकें अन्य माध्यमों के कार्य से संबंधित हैं।सजाना (एप्लीके):- धातु के पतरे से अन्य धातु सतह पर सोल्डरींग करके या दानेदार काटी हुइ आकृतियो से दूसरी धातु की सतह पर विन्यास बनाने की तकनीक ।ढलाई: पिगली हुई धातु को ढलाई द्वारा आकार देने की प्रक्रिया।उत्कीर्णन: धातु को सजाने में नुकीले उपकरणों के प्रयोग द्वारा निष्पादित की जाने वाली तकनीक ।मीनाकारी : धातु पर चमकीले पदार्थ को लगाना। मीनाकारी धातु के आक्साइड(रंगो के लिए) और प्रवाह का संयोजन है। क्लोइजोन अति प्रसिद्ध मीनाकारी तकनीकों मे से एक है।उभारना : सामने की ओर हल्का ढलवां विन्यास निर्मित करने के लिए धातु को अंदर की ओर से हथौड़े और पंच का प्रयोग करके बहार की ओर धक्का लगाना।कैसे पहुंचे:-भोपाल विमानपत्तन पुराने शहर से १२ कि.मी. दूरी पर स्थित है. नियमित उड़ानें भोपाल को दिल्ली, मुम्बई, इन्दौर तथा मुम्बई से जोड़ती हैं. भोपाल दिल्ली-मुम्बई प्रमुख दो रेलवे लाइनों में से एक पर है. रेलवे स्टेशन हमीदिया रोड के निकट है. मुम्बई से दिल्ली वाया इटारसी तथा झांसी जाने वाली ट्रेनें भोपाल में से भी जाती हैं. सॉंची(४६कि.मी.),विदीशा, इंदौर (१८६कि.मी.),उज्जैन(१८८कि.मी.), तथा जबलपुर(२९५कि.मी.) के लिए अनेक बस सेवाएं हैं.